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इक्कीसवाँ सूक्त
मानवतामें निहित दिव्य अग्निका सूक्त
[ ऋषि दिव्य ज्वालाका आवाहन करता है ताकि वह मानव सत्तामें दिव्य मानवके रूपमें प्रज्वलित हो तथा हमें सत्य और परमानंदके धामोंमें हमारी पूर्णता तक उठा ले लाय । ] १ मनुष्यत्त्वा नि धीमहि मनुष्वत् समिधीमहि । अग्ने मनुष्यदङ्गिरो देवान् देवयते यज ।।
(मनुष्वत्) मानुषी रूप'में हम (त्वा) तुझे (नि धीमहि) अपने अंदर प्रतिष्ठित करते हैं, (मनुष्वत्) मानुषी रूपमें (त्वा) तुझे (सम् इधीमहि) प्रज्वलित करते हैं । (अग्ने) हे ज्वाला! (अङ्गिर:) हे द्रष्टृ-रूप शक्ति! (देवयते) देवोंकी कामना करनेवालेके लिए (मनुष्वत्) मानुषी रूपमें (देवान् यज) देवोंके प्रति यज्ञ कर । 2 त्वै हि मानुषे जनेऽग्ने सुप्रीत इध्यसे । सुचल्ला यन्त्यानुषक्सुजात सर्पिरासुते ।।
(अपने) हे ज्वालारूप अग्निदेव ! (सुप्रीत त्वम्) जब तू [ मनुष्यकी ] भेंटोंसे तृप्त होता है तब तू (मानुषे जने) मानव प्राणीमें (इध्यसे हि) प्रज्वलित होता है । उसके (स्रुच:) कड़छे (आनुषक्) निरंतर (त्वा यन्ति) ________________ 1. देवत्व मनुष्यके अंदर अवतरित होता हुआ मानवताका आवरण ओढ़ लेता है । भगवान् अनादि कालसे पूर्ण एवं अजन्मा है, और है सत्य एवं आनंदमें प्रतिष्ठित; अवतरित होता हुआ वह मनुष्यमें उत्पन्न होता है, बढ़ता है, शनै:-शनै अपना पूर्णत्व प्रकट करता है, मानों युद्ध और दुष्कर विकाससे सत्य और आनंदको प्राप्त करता है । मनुष्य है चिन्तक, भगवान् है शाश्वत द्रष्टा; परंतु मर्त्यको अमरतामें विकसित होनेमें सहायता देनेके लिए भगवान् विचार और जीवनके रूपोंके पर्दोके पीछे अपने 'द्रष्टा'-भावको छिपाए रखता है । १०४
मानवतामें निहित दिव्य अग्निका सूक्त
तेरी ओर जाते हैं, (सुजात) हे अपने जन्ममें पूर्ण ! (सर्पि:-आसुते) हे प्रवाहशील-ऐश्वर्य-रूपी रसको निकालनेपुवाले ! ३ त्वां विश्वे सजोषसो देवासो दूतमक्रत । सपर्यन्तस्त्वा कवे यज्ञेषु देवमीळते ।।
(सजोषस:) प्रेममय एकहृदयसे युक्त (विश्वे देवास:) सब देवोंने (त्वां) तुझे (दूतम् अक्रत) अपना दूत बनाया । (कवे) हे द्रष्टा ! मनुष्य (यज्ञेषु) अपने यज्ञोंमे (देवम्) देवके रूपमें (सपर्यन्त) तेरी सेवा करते हैं, (ईडते) तेरी उपासना करते हैं । ४ देवं वो देवयज्ययाऽग्निमीळीत मर्त्य: । समिद्ध: शुक्र दीदिह्यृतस्य योनिमासद: ससस्य योनिमासद: ।।
(मर्त्य:) मरणधर्मा मनुष्य (देव-यज्यया) दिव्य शक्तियोंके प्रति यज्ञ द्वारा (देवम् अग्निम्) दिव्य संकल्पाग्निकी (ईळित) आराधना करे । (शुक्र) हे ज्योतिर्मय ! (समिद्ध:) प्रज्वलित होकर (दीदिहि) देदीप्यमान हो, (ऋतस्य योनिम्) सत्यके घरमे (आसद:) प्रवेश कर, (ससस्य योनिम्) परम आनंदके घरमें (आसद:) प्रवेश कर । १०५
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